जंगलों का कुछ ऐसा ही मॉडल गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय ने बनाकर दिखाया है। बंजर भूमि पर विकसित किए गए ये जंगल लोगों के लिए रोजीरोटी का जरिये भी बन रहे हैं और पर्यावरण के प्रहरी भी। यह वन प्रतिवर्ष एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में औसतन 2.5 टन कार्बन का अवशोषण कर रहे हैं।
जंगलों का बचाना है कि तो आम आदमी को इनसे भावनात्मक रूप से जोड़ना होगा। जंगलों का कुछ ऐसा ही मॉडल गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय ने बनाकर दिखाया है। बंजर भूमि पर विकसित किए गए ये जंगल लोगों के लिए रोजीरोटी का जरिये भी बन रहे हैं और पर्यावरण के प्रहरी भी। यह वन प्रतिवर्ष एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में औसतन 2.5 टन कार्बन का अवशोषण कर रहे हैं।जंगलों में आग, औद्योगिक प्रतिष्ठानों व वाहनों के धुएं से कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है। इसका परिणाम ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आ रहा है। दुनिया भर के वैज्ञानिक इसी पर शोध कर रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन की दर कैसे कम किया जाए। इसी पर गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान के विभागाध्यक्ष प्रो. आरके मैखुरी और राष्ट्रीय पर्यावरण एवं अभियांत्रिकी शोध संस्थान (नीरी) नागपुर की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. शालिनी ध्यानी लंबे समय से काम कर रहे हैं।दोनों विशेषज्ञों का मानना है कि वन कानूनों ने जंगल को आम आदमी की पहुंच से दूर कर दिया है। इससे उनका जंगल के प्रति लगाव कम हो गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिकों ने जंगल से जनसमुदाय को जोड़ने की पहल की। उन्होंने टिहरी जिले के जामणीखाल, मचगांव व हड़िया, चमोली जिले के लाता, पैंग, रैणी व तोलमा, रुद्रप्रयाग जिले के त्रियुगीनारायण, बांसवाड़ा और बागेश्वर जिले के झूनी व खलझूनी में बंजर भूमि का चयन किया।
यहां लगभग 50-50 हेक्टेयर भूमि पर वर्ष 1992, 1997 और 2007 में विभिन्न प्रजातियों के पौधे रोपे गए। आज इन बंजर जमीनों पर जंगल विकसित हो गए हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार जंगलों के विकसित होने के बाद परिणाम उत्साहजनक हैं। एक हेक्टेयर जंगल प्रतिवर्ष 2.5 से 2.7 टन कार्बन का अवशोषण कर रहे हैं। लोग इन जंगलों से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं और इसीलिए ये जंगल सुरक्षित भी हैं।
प्रदूषण से पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंच रहा है। ऐसे में यह मॉडल कार्बन उत्सर्जन दर को कम करने में काफी उपयोगी साबित होगा। इन स्थानों पर अन्य स्थानों की तुलना में तापमान भी कम रहता है। पर्यावरण भी संरक्षित हो रहा है और ग्रामीणों को चारा पत्ती, लकड़ी और सब्जी भी मिल रही है। अब सरकार और ग्रामीणों को इसी तर्ज पर वन विकसित करने चाहिए।