मान्यताओं के अनुसार हरकी पैड़ी से पहली कांवड़ त्रेतायुग में भगवान परशुराम ने स्वयं उठाई थी। यद्यपि तब कांवड़ यात्रा का आज जैसा रूप नहीं था। शिवलिंगों की स्थापना के लिए परशुराम ने गंगा से पत्थर निकाले तो पाषाण करुण क्रंदन करने लगे। वे कहने लगे कि उन्हें मां गंगा से अलग न करो। तब परशुराम ने वचन दिया कि पत्थरों को शिवलिंग के रूप में जहां जहां स्थापित किया जाएगा, श्रावण मास में शिवभक्त हरकी पैड़ी के जल से वहां वहां जलाभिषेक करेंगे।
दुष्ट राजाओं के दलन के बाद परशुराम ने यज्ञ करने का निर्णय लिया। इस यज्ञ का आयोजन बागपत के पास वर्तमान पुरा महादेव मंदिर परिसर में किया गया। हरिद्वार की हरकी पैड़ी से निकाले शिवलिंग से पहला मंदिर पुरा महादेव के रूप में स्थापित हुआ। इस संबंध में आचार्य बृहस्पति और पंडित विष्णु शर्मा ने पुस्तक भी लिखी है। पुरा के बाद परशुराम के शिष्यों ने देश के सैकड़ों नगरों और गांवों में शिव मंदिर बनाए। गंगा तट पर दिए गए वचन का पालन कराने के लिए सावन में जगह-जगह श्रद्धालु गंगाजल लेने कांवड़ धारियों के रूप में आते हैं। हरिद्वार के बाद अब काशी और प्रयाग आदि तीर्थों से भी जल ले जाया जाने लगा है।
कांवड़ यात्रा को लेकर कुछ अन्य पुरा कथाएं भी पुराणों में उपलब्ध हैं। इनके अनुसार समुद्र मंथन के बाद जब समुद्र से निकला विष भगवान शंकर ने ग्रहण किया तब विष की ज्वाला से उनका शरीर जलने लगा। विष को गले में रोकने से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए।
विष से उत्पन्न ज्वाला को शांत करने के लिए रावण ने पहला जलाभिषेक सावन में किया। यही कांवड़ यात्रा का शुभारंभ था। इसी प्रकार बाबाधाम में राम के जलाभिषेक का वर्णन भी शास्त्रों में उपलब्ध है। कहा जाता है कि मातृ पितृ भक्त श्रवण कुमार ने नेत्रहीन माता पिता को कांवड़ बनाकर उन्हें दोनों पलड़ों में बिठाया।
तीर्थाटन करते हुए वह श्रावण में हरिद्वार आए और माता पिता को ब्रह्मकुंड पर स्नान कराया। उसी को बाद में कांवड़ यात्रा का स्वरूप प्राप्त हुआ। कांवड़ यात्रा वस्तुत: शिव मंदिरों तक गंगाजल की सबसे बड़ी पैदल यात्राओं से जुड़ी हुई है। एक बार फिर लाखों कांवड़िए गंगा को यात्रा कराने निकल पड़े हैं।