दोस्ती के किस्से और कहानियां तो बहुत सुनी होंगी। ऐसे ही तीन फक्कड़ साधुओं के यारी बेहद दिलचस्प है। एक साधु जन्म से दृष्टिहीन तो दूसरे की नजर कमजोर है। तीसरा साधु ही दोनों का सारथी है। तीनों साधु फक्कड़ हैं। कोई स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं है।जहां मेले लगते हैं वहीं पड़ाव डालते हैं और श्रद्धालुओं की दान दक्षिणा से गुजारा करते हैं। तीनों फक्कड़ आजकल धर्मनगरी हरिद्वार में हैं। सड़कों पर श्रद्धालुओं से भिक्षा मांगते हैं तो अखाड़ों की छावनियों में लंगर चख रहे हैं।

एक-दूजे का हाथ थामकर सड़कों पर चलते फक्कड़ों की यारी देख हर कोई हिंदी सिनेमा की चर्चित फिल्म ‘दोस्ती’ के किरदारों में खो रहा है। महाकुंभ में देशभर से साधु-संतों और नागा संन्यासियों का रैला उमड़ रहा है। अप्रैल तक सिलसिला चलेगा।

इन्हीं साधुओं में बिहार के सुरेश गिरि, कानपुर के ईश्वर गिरि और दिल्ली के शेरू गिरि की जोड़ी भी है। सुरेश गिरि जन्म से दृष्टिहीन और ईश्वर गिरि की नजर कमजोर है। शेरू गिरि इनके सारथी हैं।

तीनों फक्कड़ हैं और एक दशक से साथ

तीनों फक्कड़ हैं और एक दशक से साथ ही रहते हैं। गेरुवा वस्त्र धारण किए तीनों फक्कड़ हरिद्वार में अलग-अलग सड़कों पर अक्सर घूमते दिखते हैं और आवाजाही करने वालों का ध्यान खींच रहे हैं।
शेरू गिरि बताते हैं, हर कुंभ और मेले में जाते हैं।मेलों में श्रद्धालुओं की श्रद्धा (दक्षिणा) से ही गुजर बसर करते हैं। शेरू बताते हैं, कोई स्थायी ठिकाना नहीं है। तीनों दिनभर भिक्षा मांगते हैं और जहां आसरा मिल जाए वहीं रात गुजारते हैं। कई बार फुटपाथ पर भी रात बिताते हैं। दृष्टिहीन सुरेश गिरि बताते हैं, शेरू ही उनकी आंख है।

तीनों सुख-दुख के सारथी और जीवनभर साथ निभाने की ठानी है। तीनों घर-परिवार छोड़ चुके हैं। ईश्वर गिरि बताते हैं, मेलों को छोड़कर अधिकतर समय मुफलिसी में गुजरता है। मेलों में दक्षिणा के अलावा भंडारों में भोजन भी मिल जाता है।

जब मेले नहीं होते हैं तो दो वक्त की रोटी तक के लिए पैसे नहीं होते हैं। हमेशा तीनों साथ चलते हैं, इसलिए दान दक्षिणा भी अधिक नहीं जुटा पाते हैं। कई बार भूखे पेट रात गुजारनी पड़ती है।

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